Under category | इस्लाम धर्म की महानता | |||
Creation date | 2013-03-04 16:18:14 | |||
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नि:सन्देह इस्लाम धर्म ने न्याय की नीव रखी तथा उस के स्तंभ को मज़बूत बनाया और इसे (न्याय) एक धार्मिक उत्तरदायित्व बतलाया, अल्लाह तआला ने फरमाया:
إِنَّ اللَّهَ يَأْمُرُ بِالْعَدْلِ (النحل: 90).
''अल्लाह न्याय का आदेश देता है। (सूरतुन-नहल:90)
तथा क़ुरआन ने निशिचत किया कि मुसलामनों के लिये उचित नहीं कि वह अपनी व्यकितगत प्रवृत्ति के आधार पर तथा अपने खानदान और क़रीबी लोगों के हितों की लालच में न्याय से काम न लें, अल्लाह तआला ने फरमाया:
وَإِذَا قُلْتُمْ فَاعْدِلُوا وَلَوْ كَانَ ذَا قُرْبَى (الأنعام: 152).
''तथा जब तुम बात करो तो न्याय करो अगरचे वह व्यकित तुम्हारा संबंधित ही हो। (सूरतुल अन्आम:152)
बलिक इस्लाम ने तो शत्रुओं तक के साथ न्याय करने का आदेश दिये, जैसाकि अल्लाह तआला ने फरमाया:
وَلاَ يَجْرِمَنَّكُمْ شَنَآنُ قَوْمٍ عَلَى أَلاَّ تَعْدِلُوا اعْدِلُوا هُوَ أَقْرَبُ لِلتَّقْوَى (المائدة: 8).
''किसी क़ौम की शत्रुता तुम्हें न्याय से काम न लेने पर न उभारे, न्याय किया करो जो परहेज़गारी के बहुत निकट है।
(सूरतुल माइदा:8)
पस यह सब इस्लाम के न्याय की विशेषताएं हैं, ऐसा न्याय जिस पर लोगों के बीच पाये जाने वाले संबंध से असर नहीं पड़ता और न ही लोगों के बीच पार्इ जाने वाली शत्रुता से इस पर असर पड़ता है, तो उचित यह है कि मुसलमान अपने शत्रु के साथ न्याय करे जिस प्रकार वह अपने मित्र के साथ न्याय करता है तथा यह न्याय की ऐसी चोटी है जहाँ आज तक कोर्इ भी इंसानी क़ानून नहीं पहुँच सका है।