यह आरोप कि "हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-जब न पढ़े थे न लिखे थे तो क़ुरआन कैसे सिखाए ? " और इस आरोप का उत्तर
सब से पहले यह बात याद रहे कि हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-के विशेष नामों में से एक नाम "उम्मी" भी है जो ऐसे व्यक्ति को कहते हैं जो न लिखता और न पढ़ता हो l उसका एक अर्थ यह भी है कि ऐसा आदमी जो यहूदी लोगों में से न हो यहूदी लोग ऐसे सारे लोगों को "उम्मी" कहते हैं जो उनकी जाति से न हो l
यदि "उम्मी" शब्द से पहला मायना लें यानी जो न पढ़ता हो और न लिखता हो तो हज़रत पैगंबर-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो- के लिए कोई अपमान की बात नहीं है क्योंकि यह तो हमें एक मज़बूत सबूत देता है कि वह अल्लाह के रसूल हैं और जो पवित्र क़ुरआन उन पर उतरा वह वास्तव में अल्लाह के द्वारा ही उनपर उतारा गया l और उनके विषय में यह प्रश्न ही ही नहीं उठ सकता है कि उन्होंने खुद लिख लिया होगा क्योंकि वह पूरे जीवन में कभी एक अक्षर नहीं लिखे और न एक अक्षर पढ़े इसलिए उनका "उम्मी" होना इस बात को पक्की करता है कि उन्होंने यह क़ुरआन अन्य पुस्तकों को पढ़ कर नहीं बनाया और न किसी से पढ़ कर या सीख कर तैयार किया तो उनका "उम्मी" होना और न पढ़ा लिखा होना इस बात की खुली गवाही है कि यह क़ुरआन अल्लाह की ओर से उनपर वाणी के द्वरा उतरा गया था l
(وقالوا أساطير الأولين اكتتبها فهى تملى عليه بكرة وأصيلا * قل أنزله الذى يعلم السّر فى السموات والأرض إنه كان غفورًا رحيمًا) (الفرقان: 5-6(
"कहते हैं:"ये अगलों की कहानियाँ हैं, जिनको उन्होंने लिख लिया है तो वही उसके पास प्रभात काल और संध्या समय लिखाई जाती है l कहो:"उसे अवतरित किया है उसने, जो आकाशों और धरती के रहस्य जानता है l निश्चय ही वह बहुत क्षमाशील, अत्यन्त दयावान है l"(अल-फुरक़ान:५-६)
जी हाँ, उनका उम्मी होना तो उनकी ईश्दूतत्व की पुष्टि करने के लिए काफी है l जो कभी न लिखा हो न पढ़ा हो फिर भी ऐसे सुवक्ता शब्दों में चुनौतीपूर्ण अरबी भाषा में क़ुरआन लेकर आएं और पूरे अरब बल्कि पूरी दुनिया को चैलेंज दें कि इस क़ुरआन के किसी एक टुकड़े की तरह ले आओ लेकिन किसी को भी हिम्मत नहीं हुई कि इस चुनौती को स्वीकार करें जबकि अरब के लोग सुवक्ता कविता और कुशल भाषा से जाने जाते थे और एक से बढ़कर एक कविता लिखते थे और कअबा पर लटकाते थे और सारे कवियों को चुनौतियां देते थे इसके बावजूद भी शुभ क़ुरआन के जैसे कोई बात नहीं ला सके और उसके सामने सबके सब बेबस रह गए l इस से केवल एक ही बात समझ में आती है और वह यह कि हज़रत मुहम्मद-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो- अल्लाह के पैगंबर थे l केवल यही नहीं बल्कि मूर्तिपूजक और अरब के बड़े लोगों ने पवित्र क़ुरआन को सुन कर यह कहा:
"ليس من سجع الكهان ولا من الشعر ولا من قول البشر ".
"न तो यह पुजारी की तुकबंदी है और न कविता है और न किसी मनुष्य का शब्द है l "
और यदि "उम्मी" का अर्थ यह लिया जाए कि यहूदी नहीं थे तो भी सही है क्योंकि वह यहूदी थे भी नहीं और न इस में कोई अपमान है, बल्कि यह तो उनके लिए एक बड़ाई है कि वह यहूदी नहीं थे l भले ही यहूदी लोग दोसरों को गिराने के लिए और अपनी बड़ाई जताने के लिए दूसरों को उम्मी कहा करते थे l याद रहे कि वे अपने आपको दुनिया में सबसे ऊँची और बुलंद क़ौम समझते थे और समझते हैं और दुनिया की सारी क़ौमें को नीची नज़र से देखते हैं l याद रहे कि यहूदियों का यह घमंड पैगंबर हज़रत मुहम्मद-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-के संदेश के बिल्कुल खिलाफ है क्योंकि उन्होंने तो पूरी दुनिया के मनुष्य को बराबर का दर्जा दिया रंग-रूप और भाषा या जाति के आधार पर कोई बड़ाई नहीं दी l लोगों के बीच रंग-रूप और भाषा या जाति का अंतर तो इस लिए है कि एक दूसरे से सीखें और आपस में एक दूसरे का परिचय संभव हो इसका हरगिज़ यह मतलब नहीं है कि रंग-रूप और भाषा के आधार पर किसी को कोई बड़ाई है l इस्लाम धर्म में बड़ाई केवल ईमान और दिल की पवित्रता पर आधारित है जैसा कि पवित्र क़ुरआन में है:"
(يا أيها الناس إنا خلقناكم من ذكر وأنثى وجعلناكم شعوبًا وقبائل لتعارفوا إن أكرمكم عند الله اتقاكم ) (الحجرات: 13)
"ऐ लोगो! हमने तुम्हें एक पुरूष और एक स्त्री से पैदा किया और तुम्हें बिरादरियों और क़बीलों का रूप दिया, ताकि तुम एक-दूसरे को पहचानो l वास्तव में, अल्लाह के यहाँ तुममें सबसे अधिक प्रतिष्ठित वह है, जो तुममें सबसे अधिक डर रखता है l निश्चय ही अल्लाह सबकुछ जाननेवाला, ख़बर रखनेवाला है l " ( अल-हुजुरात:१३)