Under category | आस्था | |||
Creation date | 2012-12-18 16:50:44 | |||
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अल्लाह तआला बन्दे के अमल को कब स्वीकार करता है ? और अमल के अंदर किन शर्तों का पाया जाना चाहिए ताकि वह सालेह (नेक) और अल्लाह के पास स्वीकृत हो सके ?
हर प्रकार की प्रशंसा और स्तुति अल्लाह के लिए योग्य है।
अल्लाह की प्रशंसा और स्तुति के बाद : कोई भी कार्य इबादत (पूजा) के अधिनियम में उस वक़्त तक नहीं आ सकता जब तक कि उस में दो चीज़ें पूर्ण रूप से न पाई जायें और वे दोनों चीज़ें : अल्लाह के लिए संपूर्ण विनम्रता के साथ संपूर्ण प्यार का पाया जाना है, अल्लाह तआला का फरमान है : "और जो लोग ईमान लाये हैं (मोमिन लोग) अल्लाह तआला से सब से बढ़कर प्यार करने वाले होते हैं।" (सूरतुल बक़रा : 165)
तथा अल्लाह सुब्हानहु व तआला ने फरमाया : "वे लोग भलाई और अच्छाई के कामों में जल्दी करते थे, तथा वे आशा और भय के साथ हमें पुकारते थे, और हमारे लिए विनम्र रहते थे।" (सूरतुल अंबिया : 90)
जब यह ज्ञात हो गया, तो यह भी ज्ञात रहना चाहिए कि इबादत (पूजा और उपासना) केवल एकेश्वरवादी मुसलमान से ही स्वीकार की जाती है जैसाकि सर्वशक्तिमान अल्लाह तआला ने काफिरों (नास्तिकों) के विषय में फरमाया है : "और उन्हों ने जो कार्य किए थे हम ने उनकी ओर बढ़ कर उन्हें उड़ते हुए ज़र्रों (कणों) की तरह कर दिया।" (सूरतुल फुर्क़ान : 23)
तथा सहीह मुस्लिम (हदीस संख्या : 214) में आईशा रज़ियल्लाहु अन्हा से वर्णित है, वह कहती हैं कि : मैं ने कहा कि ऐ अल्लाह के पैगंबर, इब्ने जुद्आन जाहिलियत के समय काल में सिला रेहमी (अर्थात् रिश्तेदारों के साथ अच्छा व्यवहार) करता था और गरीब को खाना खिलाता था, तो क्या ये सत्कर्म उसे लाभ पहुँचायें गे ? आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : यह उसे लाभ नहीं देंगे, क्योंकि उस ने एक दिन भी यह नहीं कहा कि : हे मेरे पालनहार! बदले (पुनर्जीवन) के दिन मेरे पाप को क्षमा कर देना।" इस का मतलब यह हुआ कि वह मरने के बाद पुन: जीवित किये जाने में विश्वास नहीं रखता था, और अमल (सत्कर्म) करते वक़्त उसे अल्लाह से मुलाक़ात करने की उम्मीद नहीं थी।
फिर यह बात भी ज्ञात रहनी चाहिए कि एक मुसलमान व्यक्ति से इबादत (पूजा और उपासना) उसी समय स्वीकार की जाती है जब उस में दो बुनियादी शर्तें पाई जायें :
प्रथम : अल्लाह तआला के लिए नीयत को विशुद्ध करना : इस का मतलब यह है कि बन्दे का अपने सभी प्रोक्ष और प्रत्यक्ष कथनों और कर्मों से उद्देश्य केवल अल्लाह तआला की प्रसन्नता और खुशी प्राप्त करना हो।
द्वितीय : उस शरीअत की अनुकूलता, एकमात्र जिस के अनुसार अल्लाह तआला ने अपनी इबादत करने का आदेश दिया है, और यह इस प्रकार हो सकता है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम जो कुछ लेकर आये हैं उसे में आप का अनुसरण किया जाये, आपका विरोध करना त्याग दिया जाये, कोई नयी इबादत या इबादत के अंदर कोई नयी विधि न पैदा की जाये जो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से प्रमाणित न हो।
इन दोनों शर्तों का प्रमाण अल्लाह तआला का यह कथन है : "तो जिस व्यक्ति को अपने रब (परमेश्वर) से मिलने (या उस के पुरस्कार) की आशा हो, तो उसे नेक काम करना चाहिए और वह अपने रब (पालनहार) की इबादत में किसी को साझी न ठहराये।" (सूरतुल कह्फ : 110).
इब्ने कसीर रहिमहुल्लाह फरमाते हैं : (जिसे अपने रब से मिलने) अर्थात् उसके प्रतिफल और अच्छे बदले के पाने की आशा हो, (तो उसे अमल सालेह करना चाहिए) अर्थात् ऐसा काम जो अल्लाह की शरीअत के मुताबिक़ और अनुकूल हो, (और अपने रब की इबादत में किसी को साझी न करे) और यह वह काम है जिस का उद्देश्य केवल अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त करना हो जिस का कोई शरीक और साझी नहीं, और यही दोनों, स्वीकार किये जाने वाले अमल के दो स्तंभ हैं : उसका अल्लाह के लिए खालिस और विशुद्ध होना और अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की शरीअत के अनुसार ठीक (दुरूस्त) होना आवश्यक है।" (इब्ने कसीर रहिमहुल्लाह की बात समाप्त हुई)
तथा इंसान जितना ही अपने रब (पालनहार) और उसके नामों और गुणों के बारे में अधिक जानकारी रखने वाला होगा, उतना ही अधिक उसके अंदर इख़्लास और ईमानदारी पैदा होगी, और जितना ही वह अपने पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और आप की सुन्नत का अधिक जानकार होगा उतना ही अधिक वह पैरवी और अनुसरण करने वाला होगा, और इख़्लास (ईमानदारी) और सुन्नत की पैरवी (अनुसरण) के द्वारा ही बन्दे को लोक और परलोक दोनों घरों में मोक्ष प्राप्त होता है। हम अल्लाह तआला से दुनिया और आख़िरत में सफलता और कल्याण का प्रश्न करते हैं।