पैगंबर हज़रत मुहम्मद के समर्थन की वेबसाइट - नेक अमल की शर्तें



عربي English עברית Deutsch Italiano 中文 Español Français Русский Indonesia Português Nederlands हिन्दी 日本の
Knowing Allah
  
  

Under category आस्था
Creation date 2012-12-18 16:45:05
Hits 1117
इस पेज को किसी दोस्त के लिए भेजें Print Download article Word format Share Compaign Bookmark and Share

   

अल्लाह तआला बन्दे के अमल को कब स्वीकार करता है? अमल के नेक होने और अल्लाह के यहाँ मक्बू़ल (स्वीकृत) होने की क्या शर्तें हैं?

हर प्रकार की प्रशंसा और स्तुति अल्लाह के लिए योग्य है।

अल्लाह की प्रशंसा और स्तुति के बादः कोई भी अमल उस समय तक इबादत नहीं होती है जब तक कि उस में दो चीज़ें पूर्णतः न पायी जायें और वो दोनों चीज़ें : संपूर्ण महब्बत के साथ संपूर्ण दीनता और नम्रता हैं। अल्लाह तआला का फरमान हैः "और ईमान वाले अल्लाह की महब्बत में बहुत सख्त होते हैं।" (सूरतुल बक़राः 165)

तथा अल्लाह तआला ने फरमाया : "और वो लोग जो अपने रब (पालनहार) के भय से डरते हैं।" (सूरतुल मोमिनूनः 57)

तथा इन दोनों बातों को अल्लाह तआला ने अपने इस कथन में एक साथ बयान किया है : "यह नेक लोग नेक अमल की तरफ जल्दी दौड़ते थे, और हमें रग़बत (इच्छा) और डर के साथ पुकारते थे, और हमारे सामने विनम्र (आजिज़ी से) रहते थे।" (सूरतुल अम्बिया :90)

जब यह ज्ञात हो गया तो यह भी मालूम होना चाहिए कि इबादत केवल मुवह्हिद (एकेश्वरवादी ) मुसलमान की ही स्वीकार होती है, जैसाकि अल्लाह तआला का फरमान है : "और उन्हों ने जो-जो अमल किये थे हम ने उन की तरफ बढ़ कर उन्हें कणों (ज़र्रों) की तरह तहस-नहस कर दिया।" (सूरतुल फ़ुरक़ान :23)

और सहीह मुस्लिम (हदीस संख्या :214) में आईशा रज़ियल्लाहु अन्हा से विर्णत है, वह कहती हैं : मैं ने कहा कि ऐ अल्लाह के पैग़म्बर ! (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अब्दुल्लाह बिन जुदआन जाहिलियत (अज्ञानता) के समयकाल में रिश्तेदारों के साथ अच्छा व्यवहार करता था और मिस्कीनों को खाना खिलाता था, तो क्या यह चीज़ उसे लाभ पहुँचाये गी? आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उत्तर दिया कि यह उसे लाभ नहीं पहुँचाये गा क्योंकि उस ने किसी दिन यह नहीं कहा कि ऐ मेरे पालनहार! क़ियामत के दिन मेरे गुनाहों को क्षमा कर देना।" अर्थात् यह कि वह मरने के बाद पुन: जीवित किए जाने पर विश्वास नहीं रखता था, और अमल करते हुए उसे अल्लाह से मुलाक़ात करने की आशा नहीं थी।

फिर एक मुसलमान की इबादत उसी समय स्वीकार होती है जब उस में दो बुनियादी शर्तें पाई जायें :

प्रथम : अल्लाह तआला के लिये नीयत को खालिस करना : अर्थात् बन्दे के सभी ज़ाहिरी व बातिनी कथनों और कर्मों का उद्देश्य केवल अल्लाह तआला की प्रसन्नता प्राप्त करना हो।

द्वितीय : वह इबादत उस शरीअत के अनुकूल हो जिसके अनुसार अल्लाह तआला ने इबादत करने का आदेश किया है, और वह इस प्रकार कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम जो कुछ (शरीअत) लेकर आये हैं उसमें आप का अनुसरण किया जाये, आप का विरोध न किया जाये, कोई नई इबादत या इबादत के अंदर कोई नई विधि न निकाली जाये जो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से साबित न हो।

इन दोनों शर्तों की दलील अल्लाह तआला का यह कथन है :"अत: जो भी अपने रब के बदले की आशा रखता हो, उसे नेक अमल करना चाहिए और वह अपने रब की इबादत में किसी को साझी न ठहराये।" (सूरतुल कह्फ :110)

इब्ने कसीर रहिमहुल्लाह कहते हैं : ((जो अपने रब की मुलाक़ात की आशा रखता हो)) अर्थात् उसके पुण्य और अच्छे बदले का, ((उसे नेक अमल करना चाहिए)) अर्थात् ऐसा काम जो अल्लाह की शरीअत के अनुकूल (मुताबिक़) हो ((और अपने रब की इबादत में शिर्क न करे)) अर्थात् ऐसा अमल जिस का मक़्सद अल्लाह तआला की खुशी और प्रसन्नता हो जिस का कोई साझी नहीं। ये दोनों बातें मक़बूल अमल के दो स्तंभ हैं, अत: उसका अल्लाह के लिए खालिस और रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की शरीअत के अनुसार विशुद्ध होना अनिवार्य है।




                      Previous article                       Next article




Bookmark and Share


أضف تعليق