पैगंबर हज़रत मुहम्मद के समर्थन की वेबसाइट - इस्लाम और तलवार के आरोप का खण्डन



عربي English עברית Deutsch Italiano 中文 Español Français Русский Indonesia Português Nederlands हिन्दी 日本の
Knowing Allah
  
  

Under category संदेह और उनके उत्तर
Creation date 2007-11-04 07:49:08
Article translated to
العربية    English    Español    Italiano    עברית    中文   
Hits 41667
इस पेज को......भाषा में किसी दोस्त के लिए भेजें
العربية    English    Español    Italiano    עברית    中文   
इस पेज को किसी दोस्त के लिए भेजें Print Download article Word format Share Compaign Bookmark and Share

   

 

इस्लाम औरतलवारके आरोप का खण्डन

हो सकता है इन लाइनों को पढ़नेवाले कुछ नए तथ्योँ को जानकर आश्चर्यचकित हो जाएँ lऔर हो सकता है वे पहली बार ऐसी बातें सुन रहे होंlइससे पहले कि मैं लेख को आगे बढ़ाऊं, ब्रिटिश ईसाई विचारक थॉमस कारल्य्ले की बात का उल्लेख उचित समझता हूँ lउनका कहना है: "मेरा विचार यह है कि सत्य स्वंय ही फैलता है चाहे जैसे भी फैले, परिस्थितियों की आवश्यकता जैसी होती है उसके अनुसार फैलता है... क्या आपने नहीं देखा कि ईसाइयत भी अपने आपको तलवार उठाने से नहीं बचा पाई और उसे भी तलवार उठानी पड़ीlयहाँ केवल इतना इशारा करना काफी है कि कर्लमैन ने सक्सोन जनजातियों के साथ क्या कुछ किया थाlमुझे इससे कुछ लेनदेन नहीं है कि सत्य किस तरह फैला? तलवार से फैला या ज़बान से फैला या कसी अन्य तरीक़े से फैला..... सत्य को अपनी शक्ति का परचार करने दीजिए, चाहे शब्द से हो, या प्रेस से हो, या गोलियों और संघर्ष द्वारा हो.... उसे फैलने दीजिए चाहे उनके हाथ, पैर, और नाखून के द्वारा ही हो क्योंकि सच्चाई कभी नहीं हार सकती है और उनमें से जो मिटने के योग्य है वही मिटेगाl"

 


आइये सब से पहले हम यह परीक्षण करते हैं कि इस्लाम धर्म शांति का धर्म है या युद्ध का धर्म है?
क्या केवल तलवार ही उसके परचार का साधन है या और दूसरे भी साधन हैं जो प्रेम और प्यार पर आधारित हैं?
इन दोनों सवालों का एक ही अर्थ है क्या इस्लाम शांति का धर्म है या युद्ध का धर्म है?
अरबी भाषा का शब्द "इस्लाम" और "सलाम" दोनों एक ही शब्द से निकले हैं जिसका अर्थ है शांति और चैन और "सलाम" अल्लाहसर्वशक्तिमान की विशेषताओं बल्कि उसके शुभ नामों में से एक हैl

 


याद रहे मुसलमान इस नाम की माला जपते हैं, प्रार्थनाओं और नमाज़ों में इस शुभ नाम की रट लगाते हैं l"सलाम" और "इस्लाम" मुसलमानों के बच्चों के नाम होते हैंlजैसे ही मुसलमान नमाज़ समाप्त करते हैं तो नमाज़ की समाप्ति भी उसी शब्द से होती हैl(नमाज़ के ख़त्म पर मुस्लमान "अस्सलामु अलैकुम व रहमतुल्लाह" (आपको शांति हो और अल्लाह की दया हो आप पर)कहते हैं और इबादत से इसी शब्द के द्वारा दैनिक जीवनकी ओर वापिस आते हैं  l 

 


यदि पृथ्वी पर "शांति" मनुष्य का सबसे महत्वपूर्ण विषय है तो याद रहे कि यह शांति अल्लाह सर्वशक्तिमान के पास और मुसलमानों के पास  उससे भी कहीं बढ़कर महत्वपूर्ण है इसी तरह मरने के बाद की शांति उनकी नज़र में एक विशेष और महान मूल्य रखती हैlइसीलिए अल्लाह सर्वशक्तिमान ने स्वर्ग को "दारुस्सलाम" यानी "शांति का घर" का नाम दिया और स्वर्ग के निवासियों का आपस में बधाई और प्रणाम भी "सलाम" के शब्द से ही होंगेl 
 इस अच्छे और सुंदर परिचय के बाद प्रश्न यह उठता है कि यदि इस्लाम धर्म युद्ध का विरोधी है, तो फिर पैगंबरहज़रतमुहम्मद-उन पर ईश्वर की कृपा और सलाम हो-युद्ध क्यों लड़े थेl
इसका उत्तर यह है कि इस्लाम धर्म युद्ध का विरोधी है, लेकिन यदि आप पर युद्ध थोप ही दिया जाए तो फिर आप क्या करेंगे ? उसका तो आपको मुक़ाबला करना ही होगाlबुरे और अत्याचारी ताक़तों का विरोध करना ही होगाlवास्तव में यही काम अल्लाह के पैगंबर हज़रत ईसा –सलाम हो उनपर- ने भी किया था हालांकि उन्होंने तो साफ़ कहा था:"

 


"३९- परन्तु मैं तुम से यह कहता हूं, कि बुरे का सामना न करना; परन्तु जो कोई तेरे दाहिने गाल पर थप्पड़ मारे, उस की ओर दूसरा भी फेर दे।४०-और यदि कोई तुझ पर नालिश करके तेरा कुरता लेना चाहे, तो उसे दोहर भी ले लेने दे।४१-और जो कोई तुझे कोस भर बेगार में ले जाए तो उसके साथ दोकोस चला जा।४२-जो कोई तुझ से मांगे, उसे दे; और जो तुझ से उधार लेना चाहे, उस से मुंह न मोड़॥

 

 

४३-तुम सुन चुके हो, कि कहा गया था; कि अपने पड़ोसी से प्रेम रखना, और अपने बैरी से बैर। "(मत्ती 5: 39-43)
 
यह वह शांति है जो हज़रत ईसा अपने अनुयायियों को पढ़ाते और सिखाते थे लेकिन जब उन्होंने महसूस किया कि यहूदी और बुरी ताक़तें उनका विरोध करना चाहती हैं तो उन्होंने कहा:

"३६-उस ने उन से कहा, परन्तु अब जिस के पास बटुआ हो वह उसे ले, और वैसे ही झोली भी, और जिस केपास तलवार न हो वह अपने कपड़े बेचकर एक मोल ले।" (ल्यूक २२:३६)
 यह उनको करना पड़ा था भले ही वह एक ईशदूत के रूप में अपने जीवन के केवल तीन साल ही जिये थे (और फिर जब यहूदियों ने उनको मार डालना चाहा तो अल्लाह सर्वशक्तिमान ने उन्हें बचा कर ज़िंदा आकाश में उठा लिया) और यदी उनको कुछ समय और धरती पर रहने का अवसर मिलता तो शायद जंग भी लड़े होते।  
बल्कि यह तो तय है कि इस दुनिया में फैली बुरी शक्तियों को नष्ट करने के लिए उनको हिंसक युद्ध भी करना पड़ता था जैसा कि उनसे पहले के इसराइल के पैगंबरों को करना पड़ा था । मनुष्य का प्राकृतिक स्वभाव रक्तपात से नफरत करता है, लेकिन सच तो यही है कि सबसे पहले मनुष्य हज़रत आदम से लेकर आज तक ईमानदार लोग सदा कम संख्या में ही रहे हैं । अच्छाई और बुराई तो पृथ्वी पर पहले मनुष्य के समय से साथ साथ चली आ रही है । क्या क़ाबिल ने एक औरत के लिए अपने भाई हाबिल को नहीं मारा?और यह उस समय की बात है जब पृथ्वी पर मनुष्य की संख्या बहुत कम थी बल्कि एक परिवार की संख्या से अधिक नहीं थी  ।

 


अच्छाई और बुराई के बीच संघर्ष उस समय तक जारी रहेगा जब तक पृथ्वी पर जीवन रहेगा ।
अमेरिकी इतिहासकार और दार्शनिक विल दुरांत ने बिल्कुल ठीक कहा है:" इस पृथ्वी पर मनुष्य द्वारा आयोजित युद्ध के वर्षों की संख्या ३४२१ है,जबकि शांति और युद्धविराम के साल २६८ से अधिक नहीं हैं।"
तो देख लिया आपने कि बुराई कि शक्ति कितनी विशाल है । जी हाँ वह तो एक आपदा है जो पृथ्वी पर मानव जीवन को भी मिटा सकता है । 




                      Next article




Bookmark and Share


أضف تعليق