पैगंबर हज़रत मुहम्मद के समर्थन की वेबसाइट - ऐसे मृतक बाप की ओर से हज्ज करना जो नमाज़ नहीं पढ़ता था



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Knowing Allah
  
  

   

एक लंबे समय से मेरे पिता मुत्यु पा चुके हैं, और मुझे पता है कि वह नमाज़ नहीं पढ़ते थे। मैं सऊदिया आई और मैं ने तीन बार हज्ज का फरीज़ अदा किया, जबकि मैं ने अंतिम बार यह नीयत की कि वह मेरे मृतक पिता की ओर से है, लेकिन मैं नमाज़ न पढ़ने वाले व्यक्ति के हुक्म के बारे में सुनी हूँ कि वह शरीअत के प्रावधान में काफिर है। जब मैं ने अपने पिता की स्थिति के बारे में सोचा तो बहुत चिंतित और दुखी हुई, मेरा प्रश्न यह है कि: क्या उनके लिए यह हज्ज जायज़ है ? और क्या यह उनकी नमाज़ में कोताही का कफ्फारा बन सकता है ?



सभी प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह के लिए योग्य है।

इस प्रश्न को शैख मुहम्मद बिन उसैमीन रहिमहुल्लाह पर पेश किया गया : तो उन्हों ने कहा : “इस प्रश्नकर्ता ने अपने प्रश्न में उल्लेख किया है कि उसने तीन बार हज्ज का फरीज़ा अदा किया है, जबकि सहीह बात यह है कि हज्ज का फरीज़ा जीवन में केवल एक बार अनिवार्य है, क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से प्रमाणित है कि आप ने फरमाया : “हज्ज एक बार है और जो उससे अधिक है वह ऐच्छिक है।” और आपका उसे तीन बार के शब्द से वर्णन करना गलत है।

जहाँ तक इस बात का संबंध है कि आप ने अपने पिता के लिए हज्ज किया है जबकि वह नमाज़ नहीं पढ़ते थे तो ज्ञात होना चाहिए कि काफिर (नास्तिक) लोग नेक कामों से लाभ नहीं उठाते हैं, और उनके लिए मग़फिरत (क्षमा याचना) करना जायज़ नहीं है, क्योंकि अल्लाह तआला का फरमान है:

﴿ما كان للنبي والذين آمنوا أن يستغفروا للمشركين ولو كانوا أولي قربى من بعد ما تبين لهم أنهم أصحاب الجحيم ﴾[التوبة : 113]

“नबी और उन लोगों के लिए जो ईमान लाए हैं उचित नहीं है कि वे मुश्रिकों के लिए क्षमा याचना करें इस बात के स्पष्ट हो जाने के बाद कि वे निःसंदेह नरकवासी हैं।” (सूरतुत तौबाः 113).

लेकिन इस बात को देखते हुए कि आपके पिता कभी कभार नमाज़ पढ़ा करते थे, या उनके कुफ्र के बारे में संदेह है तो आपके उनकी ओर से हज्ज करने में कोई हर्ज की बात नहीं है, और आप यह कहें कि: ऐ अल्लाह इसके अज्र को मेरे पिता के लिए कर दे यदि वह मोमिन थे, और इसे आप अपने पिता के मोमिन होने पर लंबित कर दें, तो इस तरह के मामले में कोई हर्ज नहीं है, क्योंकि इबादतों के अंदर और दुआ के अंदर मामले को लंबित करना जायज़ है।

जहाँ तक इबादतों में लंबित करने की बात है तो : इसका प्रमाण नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का ज़बाआ बिन्त ज़ुबैर रज़ियल्लाहु अन्हुमा से, जबकि उन्हों ने हज्ज का इरादा किया था और वह बीमार थीं,  यह फरमान है : “तुम हज्ज करो और शर्त लगा लो, क्योंकि तुम्हारे लिए अपने पालनहार पर वह चीज़ है जिसे तुम ने इस्तिस्ना (अपवाद) कर दिया है।” इसे बुखारी (हदीस संख्या : 5089) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 1207) ने रिवायत किया है।

जहाँ तक दुआ की बात है तो लिआन की आयत में अल्लाह का यह फरमान है :

﴿ والخامسة أن لعنة الله عليه إن كان من الكاذبين ﴾ [النور : 7].

“पाँचवी बार कहे कि उस पर अल्लाह का धिक्कार (लानत) हो यदि वह झूठा है।” (सूरतुन्नूर : 7)

“दलीलुल अख्ता अल्लती यकओ फीहा अल हाज्जों वल मोतमिरो”

 




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