Under category | क्यू एंड ए | |||
Creation date | 2013-03-19 20:36:29 | |||
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सहीह हदीसें इस बात को स्पष्ट रूप से बयान करती हैं कि नमाज़ का छोड़ने वाला आदमी काफिर है, अगर हम इस हदीस के प्रत्यक्ष अर्थ को स्वीकार करें तो जान बूझ कर नमाज़ छोड़ने वाले को वरासत में उसके सभी अधिकारों से वंचित करना और ऐसे लोगों के लिए अलग से क़ब्रिस्तान विशिष्ट करना और उन पर दया और शान्ति के लिए दुआ न करना अनिवार्य हो जाता है, क्योंकि काफिर के लिए शांति और सुरक्षा नहीं है, और हम यह बात न भूलें कि यदि हम मोमिन और गैर मोमिन आदमियों में से नमाज़ पढ़ने वालों की गणना करें तो उनकी संख्या 6 प्रतिशत से आगे नहीं बढ़ेगी, और औरतों की संख्या तो इस से भी कम है, तो उल्लिखित चीज़ों के बारे में शरीअत का क्या कहना है, और नमाज़ छोड़ देने वाले को सलाम करने या उस के सलाम का जवाब देने का क्या हुक्म है ?
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है।
विद्वानों ने जान बूझ कर नमाज़ छोड़ देने वाले मुसलमान के बारे में जबकि वह उसकी अनिवार्यता का इनकार करने वाला न हो, मतभेद किया है। चुनाँचि कुछ लोगों ने कहा है कि वह काफिर है, उसने ऐसा कुफ्र किया है जो धर्म से बाहर कर देता है, और उसे मुर्तद्द समझा जायेगा और उस से तीन दिन तौबा करवाया जायेगा, अगर वह तौबा कर लेता है तो ठीक है, अन्यथा उसे मुर्तद्द होने के कारण क़त्ल कर दिया जायेगा, अत: उस पर न जनाज़ा की नमाज़ पढ़ी जायेगी, न उसे मुसलमानों के क़ब्रिस्तान में दफनाया जायेगा, न उस पर उसकी जीवन में या मृत्यु के बाद सलाम पढ़ा जायेगा, न उसके सलाम का जवाब दिया जायेगा, न उसके लिए गुनाहों की क्षमा याचना (इस्तिगफार) की जायेगी, न उसके लिए रहमत (दया) की दुआ की जायेगी, न वह किसी का वारिस होगा और न ही उसके माल का कोई वारिस होगा, बल्कि उस के माल को मुसलमानों के बैतुल माल में लौटा दिया जायेगा, चाहे नमाज़ छोड़ने वाले कम हों या अधिक, उनकी बाहुल्यता और कमी से हुक्म नहीं बदलता।
और यही कथन प्रमाण (सबूत और दलील) की दृष्टि से सब से सहीह और राजेह है, क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : "हमारे और उन (काफिरों और अनेकेश्वरवादियों) के बीच अहद व पैमान नमाज़ है, अत: जिस ने उसे छोड़ दिया उस ने कुफ्र किया।" इस हदीस को इमाम अहमद और अहले सुनन ने सहीह इसनाद के साथ रिवायत किया है।
तथा आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : "(मुसलमान) आदमी के बीच और कुफ्र और शिर्क के बीच अंतर नमाज़ का छोड़ना है।" इस हदीस को इमाम मुस्लिम ने अपनी सहीह में इस विषय की अन्य हदीसों के साथ उल्लेख किया है।
तथा जमहूर विद्वानों का कथन है कि यदि वह नमाज़ की अनिवार्यता का इनकार करता है तो वह काफिर और इस्लाम धर्म से मुर्तद्द है और उसका हुक्म वही है जिसका विस्तार पहले कथन में गुज़रा है। और अगर वह उस की अनिवार्यता का इनकार करने वाला नहीं है बल्कि उदाहरण के तौर पर सुस्ती और आलस्य के कारण उसे छोड़ देता है तो वह एक बड़े गुनाह का करने वाला है, परन्तु वह इसके कारण इस्लाम धर्म से बाहर नहीं निकलता है, और उस से तीन दिन तौबा करवाना अनिवार्य है, अगर वह तौबा कर लेता है तो अल्हम्दुलिल्लाह, अन्यथा दण्ड के तौर पर उसे क़त्ल कर दिया जायेगा कुफ्र के कारण नहीं, और इस आधार पर उसे गुस्ल दिया जोयगा, कफनाया जोयगा, उस पर जनाज़ा की नमाज़ पढ़ी जोयगी, उस के लिए मग्फिरत (गुनाहों की माफी) और दया की दुआ की जायेगी, उसे मुसलमानों के क़ब्रिस्तान में दफन किया जायेगा, और वह वारिस होगा और दूसरे लोग भी उसके वारिस होंगे। सारांश यह कि उस पर जीवन और मृत्यु दोनों हालतों में नाफरमान मुसलमानों के अहकाम लागू होंगे।