पैगंबर हज़रत मुहम्मद के समर्थन की वेबसाइट - नवजात बच्चे के नामकरण में देरी



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हमारे यहाँ एक बच्चे की वृद्धि हुई है, लेकिन भेड़ें उपलब्ध न होने की वजह से हम ने लगभग पाँच महीने उसके नामकरण में विलंब कर दिया। तो क्या इस बच्चे का नाम रखना जायज़ है ?

 

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह के लिए योग्य है।

बच्चे का नाम रखने के समय को निर्धारित करने के बारे में विभिन्न हदीसें वर्णित हैं, उन्हीं में से कुछ यह हैं :

1- जो सातवें दिन नामकरण के मुस्तहब होने को दर्शाती है :

अम्र बिन शुऐब अपने बाप से और वह उनके दादा से रिवायत है कि : ''नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने सातवें दिन बच्चे का नाम रखने, उसकी गंदगी दूर करने और अक़ीक़ा करने का आदेश दिया।'' इसे तिर्मिज़ी (हदीस संख्या : 2832) ने रिवायत किया है, और कहा है : यह हदीस हसन गरीब है। और अल्बानी ने सहीह तिर्मिज़ी में इसे हसन कहा है।

तथा समुरह बिन जुंदुब रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : ''हर बच्चा अपने अक़ीक़ा का बंधक होता है, जिसे उसके जन्म के सातवें दिन बलिदान किया जायेगा, उसका सिर मूँडा जायेगा और उसका नाम रखा जायेगा।'' इसे अबू दाऊद (हदीस संख्या : 3838) ने रिवायत किया है और अल्बानी ने ''सहीह अबू दाऊद'' में सहीह कहा है।

2- जो जन्म के पहले ही दिन में नाम रखने को दर्शाती हैं :

अनस बिन मालिक रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : ''आज रात मेरे यहाँ एक बच्चा पैदा हुआ है जिसका नाम मैं ने अपने बाप इब्राहीम के नाम पर रखा है।'' इसे मुस्लिम (हदीस संख्या : 2315) ने रिवायत किया है।

विद्वानों की बहुमत इस ओर गई है कि सातवें दिन नाम रखना बेहतर है, और उनका कहना है कि अनस बिन मालिक की हदीस का तर्क केवल यह है कि जन्म के दिन बच्चे का नाम रखना जायज़ है, वह मुसतहब नहीं है।

देखिए ''अल-मुग़नी'' (9/356).

कुछ मालिकिया, नववी (और हनाबिला के यहाँ एक रूप) का कहना यह है कि पहले दिन नाम रखना मुस्तहब है, इसी तरह सातवें दिन भी मुस्तहब है।

अल्लामा नववी अपनी पुस्तक ''अल-अज़कार'' (पृष्ठ: 286) में कहते हैं कि :

''सुन्नत यह है कि बच्चे का नाम उसकी पादाइश के सातवें दिन, या जन्म के दिन रखा जाए।'' अंत हुआ।

तथा ''अल-इन्साफ'' (4/111) देखें।

इमाम बुख़ारी इस बात की ओर गए हैं कि जो व्यक्ति अक़ीक़ा करना चाहता है वह सातवें दिन अक़ीक़ा होने तक नामकरण को विलंब कर दे। लेकिन जो अक़ीक़ा नहीं करना चाहता है वह पहले दिन ही नाम रख दे।

हाफिज़ इब्ने हजर ''फत्हुल बारी'' (9/588) में कहते हैं : ''यह एक बारीक योग (समन्वय) है जो मैं ने बुखारी के अलावा कहीं नहीं देखी।''  अंत हुआ।

अल्लामा ईराक़ी ''तर्हुत-तस्रीब'' (5/203-204) में कहते हैं : ''यही (अर्थात सातवें दिन के मुस्तहब होने का कथन) हसन बसरी, मालिक, शाफेइ, और अहमद वग़ैरह का कथन है।

हमारे असहाब का कहना है : और उससे पहले नाम रखने में कोई आपत्ति की बात नहीं है।

मुहम्मद बिन सीरीन, क़तादा और औज़ाई का कहना है : अगर बच्चा पैदा हो जबकि उसकी रचना पूर्ण हो चुकी हो, तो यदि वे चाहें तो उसी समय उसका नाम रख सकते हैं।

इब्नुल मुंज़िर ने कहा : सातवें दिन उसका नाम रखना अच्छा है, वैसे वह जब चाहे नाम रख सकता है।

इब्ने हज़्म कहते हैं : उसके जन्म के दिन उसका नाम रखा जायेगा, अगर उसके नामकरण को सातवें दिन तक विलंब कर दिया जाए तो अच्छा है।

इब्नुल मुहल्लिब कहते हैं : उसके पैदा होते समय और उसके बाद उसका नाम रखना जायज़ है, सिवाय इसके कि वह उसकी तरफ से सातवें दिन अक़ीक़ा करने की नीयत रखता है, तो उसे सातवें दिन तक विलंब करना सुन्नत है। इस बात को इमाम बुखारी के इस कथन से लिया गया है जो उन्हों ने यह अध्याय क़ायम किया है : (अध्याय इस बाबत कि नवजात बच्चे का नाम उसके पैदा होने की सुबह ही रखा जायेगा जिसकी ओर से अक़ीक़ा नहीं होना है।) अंत हुआ।

बहरहाल, जो कुछ भी ऊपर उल्लेख हुआ है उससे पता चलता है कि मामला मुसतहब होने और जायज़ होने के बीच घूम रहा है, और कोई ऐसा प्रमाण नहीं है जो सातवें दिन नाम रखने को अनिवार्य और ज़रूरी करता हो। यदि नामकरण को सातवें दिन से विलंब कर दिया गया तो इसमें कोई पाप और आपत्ति की बात नहीं है।

नववी रहिमहुल्लाह ''अल-मजमूअ'' (8/415) में कहते हैं :

हमारे असहाब (शाफेइया) वगैरह का कहना है : सातवें दिन बच्चे का नाम रखना मुसतहब है, और उसके पहले तथा उसके बाद नाम रखना जायज़ है। इस बारे में सहीह हदीसें प्रत्यक्ष हैं।'' अंत हुआ।

उपर्युक्त बातों के आधार पर, आप लोगों के लिए अधिक योग्य यह था कि अपने नवजात शुभ बच्चे का नाम पहले ही दिन या सातवें दिन ही रख देते। फिर अक़ीक़ा का मामला उस समय तक के लिए छोड़ देते जब आपके लिए आसानी हो जाती। लेकिन यह मामला केवल मुसतहब होने के तौर पर है, और उसको छोड़ देना किसी पाप या सज़ा का कारण नहीं है।




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